सुन लाख टका की बात रे - sun laakh taka ki baat re

सुन लाख टका की बात रे



सुन लाख टका की बात रे।
जो तोहिँ मानत रहत आपुनो, सुत दारा पितु भ्रात रे।
सो सब धोखा जान मूढ़ मन, है सब स्वारथ नात रे।
जब ये जानत नहिं आपन हित, भटकट जग दिन रात रे।
तब ये कहा करैं हित तेरो, तू इन कत पतियात रे।
अब ‘कृपालु’ तू तोरि नात सब, जोर नात बलभ्रात रे॥

भावार्थ :- अरे मन ! लाख टका की बात सुन । जो पुत्र, पिता, भाई आदि तुझे अपना मानते रहते हैं, यह सब धोखा है । क्योंकि वे लोग अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए ही ऐसा करते हैं । अरे मन ! जब ये लोग अपना ही वास्तविक हित नहीं समझते और सांसरिक विषयों में भटकते रहते हैं तब भला ये तेरा क्या हित करेंगे । तू इन पर क्या विश्वास करता है । ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अरे मन ! अब तू सबसे नाता तोड़कर एकमात्र श्यामसुन्दर से नाता जोड़ ले।

पुस्तक : प्रेम रस मदिरा, सिद्धांत माधुरी
पद संख्या : 114
पृष्ठ संख्या : 56
सर्वाधिकार सुरक्षित ©
जगद्गुरु कृपालु परिषत्

स्वर : सुश्री अखिलेश्वरी देवी
कवि : जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज



श्रेणी : कृष्ण भजन



सुन लाख टका की बात रे | - ft.Akhileshwari Didi | प्रेम रस मदिरा | (14-11-21)

"सुन लाख टका की बात रे" भजन जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रचित एक गूढ़ आध्यात्मिक संदेश है, जो सांसारिक मोह-माया और स्वार्थी संबंधों की असलियत को उजागर करता है। यह भजन मानव मन को जगाने का कार्य करता है, जिसमें बताया गया है कि पुत्र, पिता, भाई, पत्नी जैसे संबंध वास्तव में स्वार्थ से बंधे होते हैं। जब ये अपने ही हित को नहीं समझते और संसार के मोह में दिन-रात भटकते रहते हैं, तो फिर वे किसी और का क्या भला करेंगे? इसलिए, कृपालु जी महाराज हमें यह उपदेश देते हैं कि हमें इन नश्वर संबंधों से ऊपर उठकर केवल एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण से प्रेम का नाता जोड़ना चाहिए, क्योंकि वही सच्चे हितैषी हैं।

यह भजन प्रेम रस मदिरा ग्रंथ के "सिद्धांत माधुरी" खंड में संकलित है और इसका मधुर स्वरांकन सुश्री अखिलेश्वरी देवी द्वारा किया गया है। यह भजन श्रोताओं के हृदय को भक्ति की गहराइयों में ले जाता है और उन्हें आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा देता है।

Harshit Jain

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