बाँस की बाँसुरिया पे घणो इतरावे
बाँस की बाँसुरिया पे घणो इतरावे,
कोई सोना की जो होती, हीरा मोत्यां की जो होती,
जाणे कांई करतो, कांई करतो,
बाँस की बाँसुरिया पे.....
जेल में जनम लेके घणो इतरावे,
कोई महलां में जो होतो, कोई अंगना में जो होतो,
जाणे कांई करतो कांई करतो,
बाँस की बाँसुरिया पे.....
देवकी रे जन्म लेके घणो इतरावे,
कोई यशोदा के जो होतो, मां यशोदा के जो होतो,
जाणे कांई करतो कांई करतो,
बाँस की बाँसुरिया पे.....
गाय को ग्वालो होके घणो इतरावे,
कोई गुरूकुल में जो होतो, कोई विद्यालय में जो होतो,
जाणे कांई करतो कांई करतो,
बाँस की बाँसुरिया पे....
गुजरया की छोरियां पे घणो इतरावे,
ब्राह्मण बनिया की जो होती, सेठ ठाकुरां की जो होती,
जाणे कांई करतो कांई करतो,
बाँस की बाँसुरिया पे.....
सांवली सुरतिया पे घणो इतरावे,
कोई गोरो सो जो होतो, कोई सोणो सो जो होतो,
जाणे कांई करतो कांई करतो,
बाँस की बाँसुरिया पे.....
माखन और मिश्री पे घणो इतरावे,
छप्पन भोग जो होतो, काजू मेवा जो होतो,
जाणे कांई करतो... कांई करतो,
बाँस की बाँसुरिया पे.....
संकलनकर्ता - अमित अग्रवाल 'मीत'
मो. 9340790112
श्रेणी : कृष्ण भजन
Bans Ki Basuriya Pe Ghano Itrave (Krishna bhajan) बांस की बांसुरिया पे घणो इतरावे Nisha Dutt Sharma
बांस की बांसुरिया पे घणो इतरावे एक अत्यंत भावपूर्ण और रचनात्मक कृष्ण भजन है, जिसे राजस्थान की लोकभावनाओं और ब्रज की भक्ति परंपरा में डूबकर लिखा गया है। इस भजन को अमित अग्रवाल 'मीत' जी ने संकलित किया है, और इसे स्वर दिया है निशा दत्त शर्मा जी ने। भजन की सबसे खास बात इसकी सरल भाषा, लोकल बिंबों और कृष्ण की लीलाओं का सहज लेकिन गूढ़ चित्रण है।
इस भजन में "बांस की बांसुरिया" को केंद्र में रखकर श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं को बड़े ही मनोहारी और विनोदी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। बाँस की एक साधारण बांसुरी, जिसे आम लोग तुच्छ समझते हैं, वही श्रीकृष्ण के हाथों में आकर अभिमान से भर उठती है। रचना में भजनकार ने कल्पना की है कि अगर यह बांसुरी सोने, हीरे या मोतियों की होती, या राजमहलों में जन्म लेती, तो शायद वह कुछ और ही रूप दिखाती। लेकिन साधारण होते हुए भी यह बांसुरी भगवान श्रीकृष्ण के सान्निध्य में दिव्यता को प्राप्त कर चुकी है, और इसीलिए इसका गर्व करना स्वाभाविक है।
भजन में कृष्ण के जीवन के विभिन्न पहलुओं — जैसे जेल में जन्म, यशोदा मैया की ममता, ग्वालों के साथ गौचारण, ब्रज की गोपियों से सखा भाव, सांवले रूप पर मोह, और माखन-मिश्री का प्रेम — सभी को बहुत ही रोचक और आत्मीय शैली में पिरोया गया है। यह भजन न केवल भक्तों को भावविभोर करता है, बल्कि श्रोताओं को यह भी संदेश देता है कि साधारण से भी साधारण वस्तु, जब ईश्वर से जुड़ जाती है, तो दिव्य बन जाती है।
कुल मिलाकर, "बांस की बांसुरिया पे घणो इतरावे" एक ऐसा भजन है जो लोक भाषा, सरलता और श्रीकृष्ण की लीलाओं के प्रति भक्तों की अगाध श्रद्धा का अद्भुत संगम है। यह रचना हमारी भक्ति परंपरा की गहराई को दर्शाती है और बार-बार सुनने और गुनगुनाने के लिए प्रेरित करती है।