प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो
प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो,
समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार करो,
एक लोहा पूजा मे राखत, एक घर बधिक परो,
सो दुविधा पारस नहीं देखत, कंचन करत खरो,
एक नदिया एक नाल कहावत, मैलो नीर भरो,
जब मिलिके दोऊ एक बरन भये, सुरसरी नाम परो,
एक माया एक ब्रह्म कहावत, सुर श्याम झगरो |
अबकी बेर मोही पार उतारो, नहि पन जात तरो ||
श्रेणी : कृष्ण भजन
प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो लिरिक्स Prabhu Ji Mere Avgun Chit Na Dharo
"प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो" एक अत्यंत मार्मिक और आत्मा को छू लेने वाला कृष्ण भजन है, जो भक्त की करुण पुकार और भगवान से की गई प्रार्थना का सुंदर चित्रण करता है। यह भजन भारतीय भक्ति साहित्य की उस परंपरा से जुड़ा है जहाँ भक्त अपने प्रभु के चरणों में स्वयं को पूर्णतः समर्पित करते हुए अपने दोषों की क्षमा याचना करता है।
इस भजन की सबसे विशेष बात इसका विनय भाव है, जहाँ भक्त यह निवेदन करता है कि "हे प्रभु, मेरे अवगुणों को मन में मत लाना।" वह जानता है कि वह त्रुटियों से भरा हुआ है, परंतु उसे विश्वास है कि भगवान समदर्शी हैं, और उनके नाम में अपार शक्ति है – यदि वे चाहें, तो उसे संसार सागर से पार लगा सकते हैं।
भजन में गहरी दार्शनिकता भी छिपी है। जैसे एक ही लोहा जब मंदिर में होता है तो पूज्य बनता है और जब कसाई के घर होता है तो अपवित्र कहलाता है, लेकिन पारस उसे छूते ही उसे सोना बना देता है – वैसे ही भगवान भी हमारे भेदभाव नहीं देखते, वह तो केवल प्रेम पर ध्यान देते हैं।
इसी प्रकार एक नदिया और एक गंदा नाला जब संगम करते हैं, तो दोनों का जल एक हो जाता है और उसे ही "सुरसरि" – यानी गंगा – कहा जाता है। यह उदाहरण यह दर्शाता है कि जब हम भगवान से जुड़ जाते हैं, तो हमारी आत्मा भी पवित्र हो जाती है, चाहे पहले कितनी भी मलिन क्यों न रही हो।
अंत में भजनकार एक अत्यंत भावुक प्रार्थना करता है – "अबकी बेर मोहि पार उतारो, नहि पन जात तरो" – अर्थात इस बार मुझे पार लगा दो प्रभु, अगली बार शायद यह अवसर ही न मिले। यह पंक्ति आत्मसमर्पण का चरम रूप है, जहाँ भक्त अपनी समस्त आशाएँ प्रभु के चरणों में समर्पित करता है।