प्रभु मैं पूछ रहा एक बात (prabhu main poochh raha ek baat)

प्रभु मैं पूछ रहा एक बात



प्रभु मैं पूछ रहा एक बात ।
बैठा है तू सबके अन्दर, फिर क्यों पाप होइ जात ।। प्रभु मैं....

गजब तमाशा नित्य करे तू , दिन करता फिर रात ।
एक ही साँचे में सब ढलते, फिर क्यों भेद दिखात ।। प्रभु मैं....

जहाँ पाप तहाँ पुण्य बसा है, जहाँ पुण्य तहाँ पाप ।
दीपक ऊपर करे रोशनी, नीचे अन्ध समात ।। प्रभु मैं....

फूल बनाया शूल बनाया, विस्तृत सागर शान्त ।
संचालक नाटक का नटवर, फिर विचलित क्यों कान्त ।। प्रभु मैं....

पद रचना : प• पू• श्री श्रीकान्त दास जी महाराज
स्वर : प्रवीण सिंह जी



श्रेणी : कृष्ण भजन



अद्भुत भजन : प्रभु मैं पूछ रहा एक बात/रचना : प• पू• श्री श्रीकान्त दास जी महाराज ।स्वर : प्रवीण जी ।

“प्रभु मैं पूछ रहा एक बात” एक अत्यंत गूढ़ और चिंतनशील भजन है, जिसकी रचना परम पूज्य श्री श्रीकान्त दास जी महाराज ने की है और जिसे स्वरबद्ध किया है प्रवीण सिंह जी ने। यह भजन केवल भावनाओं की नहीं, बल्कि दर्शन और प्रश्नों की भी अभिव्यक्ति है। इसमें एक भक्त अपने आराध्य से सरल शब्दों में गहरे प्रश्न पूछता है — जब तू ही सबके भीतर है, तो फिर पाप क्यों होता है?

भजन की पंक्तियाँ हमें ब्रह्मांड की विविधता और प्रभु की लीलाओं की जटिलता का बोध कराती हैं। “गजब तमाशा नित्य करे तू, दिन करता फिर रात” — इन शब्दों में सृष्टि के दो पहलुओं का उल्लेख है, और सवाल यह उठता है कि जब सब कुछ तेरी रचना है, तो तू भेदभाव क्यों दिखाता है? क्यों कोई पापी कहलाता है और कोई पुण्यात्मा?

“दीपक ऊपर करे रोशनी, नीचे अन्ध समात” — यह पंक्ति जीवन के उस कटु सत्य को उजागर करती है कि जहाँ उजाला होता है, वहीं कहीं न कहीं अंधकार भी छिपा होता है। यह प्रतीकात्मक शैली में बताता है कि संसार द्वैत से भरा है — पुण्य और पाप, सुख और दुख, प्रकाश और अंधकार — और यह सब तेरे ही विधान से है।

भजन के अंत में प्रभु को नाटक का संचालक और नटवर कहकर संबोधित किया गया है, और फिर भी उनसे यह प्रश्न पूछा गया है कि “फिर विचलित क्यों कान्त?” — यानी जब तू ही इस सृष्टि का रचयिता है, तो फिर तू विचलित क्यों प्रतीत होता है?

यह भजन भक्त को केवल भक्ति में नहीं, बल्कि गहराई से सोचने के लिए भी प्रेरित करता है। यह भाव और विचार का ऐसा संगम है, जो श्रोता के हृदय को छू जाता है और उसे प्रभु के प्रति प्रेम, श्रद्धा, और जिज्ञासा से भर देता है।

निःसंदेह, यह रचना अद्भुत है — प्रश्नों से भरी, फिर भी उत्तर की ओर प्रेरित करती हुई।

Harshit Jain

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