श्यामसुन्दर हमारो यार, लखन को जिया ललके, shyam sunder hamaro yaar, lakhan ko jiya lalke

श्यामसुन्दर हमारो यार लखन को जिया ललके



श्यामसुन्दर हमारो यार, लखन को जिया ललके।
         जिनके सिर मोर मुकुट राजै,
         गोरोचन तिलक भाल भ्राजै,
लट कारी, घनी, घुँघरार, लखन को जिया ललके।
         जिनके कानन कुण्डल हलकै,
         नैनन बिच प्रेम सुधा छलकै,
नाक बेसर सुघर, छविदार, लखन को जिया ललके।
         जिनकी चंचल चितवनि बाँकी,
         मुरिमुरि मृदु मुसकनि की झाँकी,
वनमाला गले रिझवार, लखन को जिया ललके।
         जिनके उर पीताम्बर फहरै,
         कटि किंकिनि की धुनि चित्त हरै,
भल कछनी कछी अरुणार, लखन को जिया ललके।
         जिनके चरनन नूपुर बाजै,
         झुकि झूमि गवनि गति गज लाजै,
तान मुरली 'कृपालु' बलिहार, लखन को जिया ललके।

भावार्थ - श्यामसुन्दर हमारे परम प्रियतम हैं उनको देखने के लिए मन ललचा रहा है। जिनके सिर पर मोर मुकुट सुशोभित हो रहा है, ललाट में गोरोचन का तिलक अलंकृत है, जिनकी लटें काली, घनी एवं घुँघराली हैं उनको देखने के लिए मन ललचा रहा है। जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, जिनकी आँखों में प्रेमामृत छलक रहा है, जिनकी नासिका में सुन्दर बेसर शोभायमान है, उनको देखने के लिए मन ललचा रहा है। जिनकी चितवन अत्यन्त चंचल एवं सुन्दर है, जिनकी घूम घूम कर मंद मुस्कान अत्यन्त मनोहारिणी है, जिनके गले में वनमाला सुशोभित है उनके देखने के लिए जी ललचा रहा है। जिनके वक्षःस्थल पर पीताम्बर फहरा रहा है, जिनकी कमर में किंकिनि की ध्वनि चित्त को चुरा रही है एवं लाल रंग की सुन्दर कछनी कछी हुई है, उनको देखने के लिए मेरा मन ललचा रहा है। जिनके चरणों में नूपुर बज रहे हैं, जो झुककर झूमते हुए मतवाले हाथी को लज्जित करते हुए चलते हैं, 'कृपालु' कहते हैं कि जिनकी मुरली की तान पर हम बलिहार जाते हैं, उनको देखने के लिए मन ललचा रहा है         

पुस्तक : प्रेम रस मदिरा, प्रकीर्ण माधुरी
पद संख्या : 20
पृष्ठ संख्या : 770
सर्वाधिकार सुरक्षित ©
जगद्गुरु कृपालु परिषत्

स्वर : सुश्री अखिलेश्वरी देवी
कवि : जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज



श्रेणी : कृष्ण भजन



श्यामसुन्दर हमारो यार, लखन को जिया ललके | प्रेम रस मदिरा | प्रकीर्ण माधुरी | Ft. Akhileshwari Didi

भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य सौंदर्य और उनकी अलौकिक छवि का वर्णन जितना किया जाए, उतना ही कम है। "श्यामसुन्दर हमारो यार, लखन को जिया ललके" भजन में भक्त का मन श्रीकृष्ण के अप्रतिम रूप की झलक पाने के लिए व्याकुल हो रहा है। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रचित यह अनुपम काव्य श्रीकृष्ण की मनमोहक छवि को शब्दों के माध्यम से जीवंत कर देता है।

भजन में श्रीकृष्ण के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग की सुंदरता का बड़ा ही सजीव वर्णन किया गया है। मोर मुकुट से अलंकृत उनका सिर, ललाट पर गोरोचन तिलक, घुँघराली अलकें, कानों में झूमते कुण्डल, नैनों में छलकता प्रेमामृत—इन सभी दिव्य विशेषताओं का वर्णन सुनकर ऐसा प्रतीत होता है मानो स्वयं श्यामसुंदर हमारे सामने विराजमान हैं।

उनकी चंचल चितवन, मृदु मुस्कान, गले की वनमाला, वक्ष पर लहराता पीताम्बर, कमर में किंकिनि की मनमोहक ध्वनि—ये सब भक्त को मोहित कर लेते हैं। उनके चरणों में बजते नूपुर और उनकी मुरली की तान तो जैसे भक्त को पूर्ण रूप से माधुर्य रस में डुबो देती हैं।

यह भजन केवल एक स्तुति नहीं, बल्कि एक भक्त का अपने प्रियतम श्रीकृष्ण से मिलने की उत्कंठा का मधुर अभिव्यक्ति है। इसका श्रवण हृदय को भक्ति और प्रेम से भर देता है, जिससे मन सहज ही श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं में लीन हो जाता है।

Harshit Jain

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