श्री विन्ध्यवासिनी स्त्रोतम्
श्री विन्ध्यवासिनी स्त्रोतम्
"मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो"
दैत्य संहारन वेद उधारन, दुष्टन को तुमहीं खलती हो !
खड्ग त्रिशूल लिये धनुबान, औ सिंह चढ़े रण में लड़ती हो !!
दास के साथ सहाय सदा, सो दया करि आन फते करती हो !
मोहि पुकारत देर भई, जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो !!
आदि की ज्योति गणेश की मातु, कलेश सदा जन के हरती हो !
जब जब दैत्यन युद्ध भयो, तहँ शोणित खप्पर लै भरती हो !!
कि कहुँ देवन गाँछ कियो, तहँ धाय त्रिशूल सदा धरती हो !
मोहि पुकारत देर भई, जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो !!
सेवक से अपराध परो, कछु आपन चित्त में ना धरती हो !
दास के काज सँभारि नितै, जन जान दया को मया करती हो !!
शत्रु के प्राण संहारन को, जग तारन को तुम सिन्धु सती हो !
मोहि पुकारत देर भई, जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो !!
कि तो गई बलि संग पताल, कि तो पुनि ज्योति अकाशगती हो !
कि धौं काम परो हिंगलाजहिं में, कै सिन्धु के विन्दु में जा छिपती हो !!
चुग्गुल चोर लबारन को, बटमारन को तुमहीं दलती हो !
मोहि पुकारत देर भई, जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो !!
बान सिरान कि सिँह हेरान कि, ध्यान धरे प्रभु को जपती हो !
कि कहुँ सेवक कष्ट परो, तहँ अष्टभुजा बल दे लड़ती हो !!
सिँह चढ़े सिर छत्र विराजत, लाल ध्वजा रण में फिरती हो !
मोहि पुकारत देर भई, जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो !!
देवि तुम्हारि करौं विनती, इतना तुम काज करौ सुमती हो !
ब्रह्मा, विष्णु, महेश कि हौं रथ, हाँक सदा जग में फिरती हो !!
चण्डहि मुण्डहि जाय बधो, तब जाय के शत्रु निपात गती हो !
मोहि पुकारत देर भई, जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो !!
मारि दियो महिषासुर को, हरि केहरि को तुमहिं पलती हो !
मधु कैटभ दैत्य विध्वंस कियो, नर देवन पति के ईशपती हो !!
दुष्टन मारि आनन्द कियो, निज दासन के दुःख को हरती हो !
मोहि पुकारत देर भई, जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो !!
साधु समाधि लगावत हैं, तिनके तन को तू तुरत तरती हो !
जो जन ध्यान धरै तुमरो, तिनकी प्रभुता चित्त दै करती हो !!
तेरो प्रताप तिहूँ पुर में, तुलसी जन की मनसा भरती हो !
मोहि पुकारत देर भई, जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो !!
-***- श्री मात्रे नम: -***-
श्रेणी : विन्ध्यवासिनी स्त्रोतम्
श्री विन्ध्येश्वरी स्तोत्रम् l Vindhyavasini Stotram l Durga Stotram l Madhvi Madhukar Jha
यह श्री विन्ध्यवासिनी स्त्रोतम् देवी दुर्गा की महिमा और शक्ति का अत्यंत मार्मिक वर्णन करता है। इस स्तोत्र के लेखक/कवि मध्वी मधुकर झा हैं, जिन्होंने देवी की वीरता, दैत्य संहार और भक्तों पर करुणा को सुंदर शैली में प्रस्तुत किया है। स्तोत्र का भाव यह है कि जगत की सभी कठिनाइयों और दैत्य-दुष्ट शक्तियों के नाश में देवी ही सर्वोच्च सहारा हैं। हर संकट और युद्ध में देवी अपनी त्रिशूल, खड्ग और सिंह पर सवार होकर न्याय करती हैं, अपने भक्तों की रक्षा करती हैं और दुष्टों का संहार करती हैं। इसमें बार-बार “मोहि पुकारत देर भई, जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो” कहकर भक्त अपनी शरणागति और जल्दी कृपा की प्रार्थना करता है। यह स्तोत्र न केवल शक्ति की महिमा बताता है, बल्कि भक्ति और विश्वास की गहरी अनुभूति भी कराता है।